मचैल माता की सम्पूर्ण कथा ( भाग-3) /Machail Mata History

मचैल माता सम्पूर्ण कथा


या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः


            भाग-3 ( Part-3 )


तो सभी प्यारे भगतों को एक बार फिर से मेरा नमस्कार और जय माता दी । तो आज हम फिर से आपके समक्ष माँ मचैल वाली की सम्पूर्ण कथा का भाग-3 लेकर आएं है तो चालो शुरू करते कथा का तीसरा भाग।

प्रातः जब इस भले व्यक्ति की नींद खुली तो अपने रात्रि स्वप्न का बृंतात सर्व प्रथम वहां के पुजारी को सुनाया पुजारी माँ का सेवक होने के नाते तुरंत समझ गया कि माँ जनहित में पाडर प्रकट होकर वहां की जनता का सहारा बनना चाहती है तथा पूरे पवर्तीय प्रदेश में अपने चमत्कारों एवं लीलाओं के माध्यम से लोगों का कल्याण चाहती हैं। उसने पाडर के इस अतिथि को नहाने धोने अर्थात पवित्र होकर मन्दिर में प्रवेश करने का मश्विरा दिया। काफी समय उपरांत जब यह सज्जन शौच आदि से निवृत, नहा धोकर मन्दिर पहुंचा तो पुजारी ने इसे माँ भगवती का एक छोटा सा त्रिशूल हाथों में थमाते हुए कहा कि इस शस्त्र को कही जमीन पर नहीं लगने देना इसे बड़ी श्रद्धा से गाँव में एक छोटा सा मन्दिर बनवा कर वहाँ आसीन कर देना तथा प्रातः- सायं इसकी पूजा करते रहना। माँ भवानी तुम्हारे सारे कष्ट दूरकर देगी।


इस प्रकार उस भले व्यक्ति द्वारा माँ का त्रिशूल मचेल पाडर में प्रस्थापित किया गया। काफी प्रयत्नों के बावजूद भी उस सज्जन के नाम का पता नहीं चल पाया है क्योंकि यह घटना बहुत ही पुरानी है। पर कुछ भी हो माता के सभी सेवक उस व्यक्ति के कृतज्ञय हैं जिसकी भक्ति, लगन एवं श्रद्धा कारण माँ दुर्गा अपने त्रिशूल के माध्यम से पाडर पहुंची तथा भक्तों की मनोकामना पूर्ण हुई। हम उस व्यक्ति के आभारी है। नीलम घाटी पाडर नीलम खान कारण प्रसिद्ध तो पहले से ही थी परंतु मचेल गांव का नाम यदि मश्हर है तो वरदायनी चाप्डको महारानी के चमत्कारों कारण। यहाँ प्राचीन काल से ही क्षेत्र के लाग विशेष कर नवदम्पति पुत्र बर की प्राप्ति के लिए आया करते थे और मिन्नते मांग माता से वर प्राप्त करते थे। जिस किसी की भी पुत्रफल की इच्छा पूर्ण होती थी वे अपने पुत्र का मुण्डन संस्कार मचेल माता के मन्दिर प्रांगण में पहुंच कर मां को साक्षी मान बच्चे के बाल काटते हैं । ऐसी प्रथा आज भी जारी है। इस रस्म को स्थानीय भाषा में गाभा’ कहते हैं।


सर्वशक्ति माँ चण्डिके अपने आद्य स्थान मिंधल भट्टास से मचेल पधारी हैं तथा बहुत सारे भक्त जन मिंधल माता के नाम से भी जानते एवं पूजा- अर्चना करते हैं। पाडर एवं देश भर के अन्य स्थानों के यात्री मचेल मन्दिर तथा मिंधल भट्टास में आज भी घुमरो बुढिया की चादर ओढ़ने की सुईयाँ माजूद पाते हैं जिन के प्रयोग द्वारा घुमरों अपनी शरीर को ढकने की चादर ओढ़ा करती थी। इस के अलावा उस समय की लकड़ी निर्मित दो तलवारें जिन्हें स्थानीय भाषा में खण्डे कहते हैं माजूद हैं।


इसके अतिरिक्त यहाँ बकरे की बली देने की भी प्रथा थी जो अब माता के आदेश एवं यात्रा संस्थापक ठाकुर कुलबीर सिंह जमवाल के प्रयत्नों वश समाप्त हो गई। हाँ एक प्रधा माता के वार्षिक मेले की आज भी रवां-दवा है। अंतर मात्र इतना है कि पहले इस मेले को स्थानीय नाघुई उत्सव के अवसर पर आयोजित किया जाता था जब कि वर्तमान समय में इस वार्षिक मेले ने ‘मचेल यात्रा’ का रूप धारण कर लिया है पहले तो स्थानीय लोग नाघुई मेले के अवसर अर्थात प्रथम भादू के शुभ दिन पर इस मेले का आयोजन करते थे और इसी दिन मन्दिर किवाड़ भी माता के दर्शनार्थ खोल दिए जाते थे वर्ष भर बंद रहने पश्चात क्यों कि यहाँ भारी हिमपात हुआ करता था तथा आना-जाना कठिन हो जाता था।


एक धारणा जो आज भी मौजूद है कि स्थानीय लोग जिन के माल मवेशी ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ों परे चले जाते हैं एक महीना सुच्चा रखने पश्चात नाघुई मेले के दिन दूध-दही सर्व प्रथम माता की सेवा मेट कर फिर गाँव में बांटते हैं और इस प्रकार सुच्चे की रस्म समाप्त होती है। उनकी आस्था है कि सुच्चा रखने एवें माता को भेंट करने पर उनके घरों की बरकत बढ़ती है।

मिंधल पांगी में लोगों की यह धारणा आज भी जयों की त्यों बनी हुई है कि माता के अभिशाप कारण लोग ज्यादा संतान अर्थात सात पुत्र-पुत्रियाँ अपने घर में पैदा नहीं होने देते क्यों कि इस आंकड़े के पुत्र/ पुत्रियाँ जीवित नहीं रहता । लोक धारणानुसार माँ के शाप वंश पाशाण बन गए थे। पर ऐसी धारणा मात्र मिंधल गाँव में चरितार्थ है अन्य क्षेत्रों में नहीं। मिंधल माता के मन्दिर प्रांगण में वर्ष भर दो मेलों का आयोजन किया जाता है। एक मेला जो अगस्त माह दौरान आयोजित किया जाता है इसे मिंघलियाह तथा अक्तूबर-नवंबर के दौरान आयोजित मेले को शोरजायछ कहते हैं।


मिघलियाह मेले की विशेषता में माता के चेले द्वारा दूर जंगल से एक गड़वी भर पानी एवं चीड़ वृक्ष की हरी चोटी लाना शामिल है तथा मेले में रन्गोई एवं हाकम के दो रथ मुख्य आकर्षण हैं। जबकि शोरजायछ मेले दौरान, मैदान के मध्य एक बड़ा सा दीप जलाया जाता है। इस दीप में स्थान-स्थान से पधारे श्रद्धालू क्विटलों देसी घी डालते हैं ताकि अखण्ड जोत सारी रात प्रज्वलित रहे । इसे आकाश दीप भी कहते हैं। परंतु मचेल पाडर में माता का मेला साल में एक बार आयोजित होता है इसे मचेल यात्रा की संज्ञा प्रदान है। इस दिन स्थानीय लोग अपने रिवायती लिबास में ही मेले में भाग लेते हैं और खुशियों वितरित करते हैं और मचेलनी को अपने श्रद्धा सुमन यात्रियों के संग हल्वा-पूड़ी आदि का प्रसाद चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं। प्रसाद सभी भक्तों को ग्रहण करवाते हैं तब जाकर उन्हें संतुष्टी प्राप्त होती है। इत्तेफाक की बात है कि माँ के प्रिय दोनों स्थलों के नामों का पूर्व शब्द ‘म’ ही है जैसे मिंधल और मचेल। बस माँ ही माँ ।


लोकप्रिय मचेल यात्रा का शुभारम्भ वर्ष 1980 से प्रारम्भ हुआ जब मचेल यात्रा के संस्थापक एवं माता के एक पुलिस कर्मचारी ठाकुर कुलबीर सिंह जम्बाल ने कुछ सौ व्यक्तियों पर आधारित यात्रा को सुनियोजित ढंग से अपने पैतृक जन्म स्थल चिनोत्त भद्रवाह से मचेल लाया तब से निरंतर यात्रा प्रति वर्ष ढती ही जा रही है। गत 27 वर्षों से मचेल यात्रियों की संख्या में पचीस गुना बढ़ोत्तरी हुई है अर्थात 25,000 से बढ़कर 2004 में यात्रियों की संख्या बढ़कर 40,000 तक पहुँच गई थी जो सन् 2007 में 70 हजार आंकडे को पार कर गई।

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